Friday, October 5, 2007

ऐसा सिस्‍टम जहां हर कारोबारी देखे ख्‍वाब


पिछले चंद महीनों में, मैंने एेसे कई सर्वे पढ़े हैं, जिससे पता लगता है कि भारतीय लोग दुनिया में सबसे यादा खुश रहने वाले लोगों में से हैं, युवा भारतीय भविष्य को लेकर सबसे यादा आशावान हैं, कारोबारी आत्मविश्वास का भारतीय सूचकांक समूचे उपमहाद्वीप में सबसे ऊपर है और लगातार पांचवें साल भी भारतीय उपभोक्ताओं को सबसे यादा आत्मविश्वासी होने का दर्जा मिला है।
इससे बिलकुल साफ है कि हम भारतीय जब नींद में बेचैनी से करवटें बदलते हैं तो उस समय हमारे जेहन में चल रहे ख्वाब महज हसीन ही नहीं होते बल्कि यथार्थ के धरातल पर शक्ल अख्तियार करने की कुव्वत भी रखते हैं। अब तो हम सभी को अंतत: यह यकीन भी होने लगा है कि रात में नींद में बनने वाले रेत के हमारे महल सुबह नींद टूटने के बाद हकीकत की आंधी में भरभराकर ढह नहीं जाते।
कारोबारी लोग रेत के महल बनाने के आदी नहीं होते, हम इस प्रक्रिया को ‘दूरदर्शिता’ का नाम देते हैं। तो आखिर क्या हैं आर्थिक तौर पर मजबूत और विकसित शक्ल वाले भारत के लिए देखे जाने वाले मेरे ख्वाब? सबसे पहले और हर नजरिए से सबसे ऊपर मैं कल्पना करता हूं, एक एेसे माहौल की, जिसमें उद्यमी निर्भीक होकर ख्वाब देख सकें क्योंकि इसके लिए उन्हें बाकायदा प्रेरित किया जाता है। क्योंकि ‘वित्तीय पर्यावरण’ ही उनको नए जमाने के नए-नए ख्वाबों में निवेश करने के लिए संसाधन मुहैया कराता है, क्योंकि उपभोक्ता बेहतरीन योजनाओं और सेवाओं को सिर-माथे पर बिठाते हैं, क्योंकि बौद्धिक संपदा अधिकारों के समर्थन के लिए आक्रामक रवैया अपनाया जा रहा है, क्योंकि कारोबार शुरू करने के रास्ते में आने वाली लालफीताशाही अब लगभग न के बराबर रह गई है और क्योंकि असफलता को अब सफलता के रास्ते में आने वाले एक पड़ाव से यादा कुछ नहीं समङा जाता।
और अगर इन कारोबारियों को सफल होना है तो हमें एक एेसे भारत की कल्पना करनी ही होगी, जहां वाणिय को एक खुली प्रतिस्पर्धा वाले मैदान में लाकर खड़ा किया जाए, जहां कारोबार के लुभावने क्षेत्र, नियम-कानूनों वाले उस मैदान में न कैद हों, जिन पर नए खिलाड़ियों को घुसने से रोकने के लिए बाकायदा दीवारें बनाई गई हों। हमने सारी दुनिया की निगाहें अपनी ओर करने में कामयाबी इसलिए हासिल की है क्योंकि हमारे पास उद्योग जगत के क्षत्रपों की हैरतअंगेज तौर पर बढ़ती खेप है और हमें अपनी सफलता को आंकने के लिए लगातार इसी पैमाने पर ध्यान देने की जरूरत है।
और तब निश्चित तौर पर, हम यह देखना भी चाहेंगे कि हमारे ये कारोबारी चैम्पियन दुनिया को पटकनी देने का हुनर भी हासिल करें और यह करना तब तक असंभव होगा, जब तक हम एेसे भारत की कल्पना न करें, जिसने प्रतिस्पद्र्धी चीन से मुकाबले के लिए जरूरी संसाधन जुटा लिए हों। यह कैसे संभव है कि हम अपने उत्पादों को दुनियाभर के बाजारों तक बिजली घरों, सड़कों, पुलों, हवाईअड्डों और बंदरगाहों के जाल बिछाए बिना पहुंचा सकें? इन से ही तो हमें दुनिया के कारोबारी समूह गान में अपना स्वर देने की क्षमता मिलेगी।
लेकिन यही सही विषय है, जिसकी चर्चा के साथ-साथ मुङाे उस दुस्वप्न की ओर भी ध्यान दिलाना चाहिए, जो कि आमतौर पर इस तरह के सुनहरे ख्वाबों के साथ-साथ ही दिखाई देते हैं। यह दुस्वप्न उस घनघोर बादल की तरह आते हैं, जो आर्थिक तरक्की के ऊषाकाल में पड़ रहीं खुशहाली और समृद्धि की सुनहरी किरणों को हम तक पहुंचने की राह में रोड़ा बन जाते हैं। यह रोड़े अप्रत्यक्ष होते हैं, जो सिर्फ प्रदूषण से ही नहीं पैदा होते बल्कि जाम, शोर-गुल, और पानी, खाद्यान्न की किल्लत के सामूहिक नतीजे होते हैं।
एक अजीज मित्र हाल ही में चीन यात्रा के अपने संस्मरणों का जिक्र कर रहे थे और जब वह इस जिक्र के दौरान चीन के हर छोटे-बड़े शहर में हो रहे बदलाव की रफ्तार को बताते हुए अपेक्षित तौर पर रोमांच से भरे दिख रहे थे, उस समय भी वह इन शहरों में तरक्की की चमक को तेजी से धुंधला करने वाले बेलगाम प्रदूषण को लेकर आहत नजर आए।
हम सभी इस बात से वाकिफ हैं कि केवल वातावरण ही अहम नहीं होता, जो आर्थिक विकास को नई-नई ऊंचाइयों पर ले जाता है बल्कि उतना ही जरूरी हमारे मूल्य भी होते हैं। हम सभी ने पढ़ा होगा कि किस तरह चीन में बड़ों के साथ-साथ बच्चों को भी कोयले की खदानों की न ङाेल सकने वाली और पाशविक परिस्थितियों में जबरन काम पर लगाया जाता है, सिर्फ ऊर्जा की न मिट सकने वाली भूख को पूरा करने के लिए। हमें भी बाकी दुनिया की ही तरह इस बात की गहरी चिंता है कि थ्री गोर्जेस बांध से पर्यावरण पर पड़ने वाले कौन-कौन से गहरे और दूरगामी नुकसान होंगे, इस बात को जानते हुए भी कि चीन की अर्थव्यवस्था के लिए हर लिहाज से सोने की मुर्गी साबित होने जा रहा है।
ग्रीक दर्शनशास्त्र हमारी दुनिया को एक एेसा सजीव और पवित्र सांगठनिक ढांचा मानता है, जिसमें हर चल-अचल चीज एक-दूसरे से इस कदर गहराई से जुड़ी हुई है कि इसमें होने वाले किसी दूरगामी असर से समूचा ढांचा ही विनाश की कगार पर पहुंच सकता है। लिहाजा, मैं तो तब तक आर्थिक तौर पर मजबूत एेसे भारत की कल्पना भी नहीं कर सकता, जब तक कि इसके साथ ही मैं इस बात की प्रार्थना भी न करूं कि इसके लिए ग्रीक दर्शनशास्त्र के इस सिद्धांत को बलि न चढ़ाइए।
इस बात के लिए हमें एेसे भारत की कल्पना करनी होगी, जिसे बजाय दकियानूसी रवैयों के टिकाऊ कारोबारी समाधानों में महारत हासिल हो। एक एेसा भारत, जिसमें जागरूक नागरिकों और न्यायपालिका के जरिए शहरी रहन-सहन वाले समुदायों में एेसा नजरिया विकसित हो, जो कि ऊर्जा और पानी की बरबादी पर अंकुश लगा सके। एक देश के तौर पर, हमें अपने संसाधनों के इस्तेमाल और उसके दोहन के बीच अनुपात में बेहतरीन सामंजस्य बैठाना होगा।
मुङाे मालूम है कि गाड़ियों के उत्पादन करने वाले लोगों को देखकर भी तमाम लोगों की भृकुटियां टेढ़ी हो जाती हैं क्योंकि हमारे वातावरण को एेसी तमाम दिक्कतें देने वालों में इस उद्योग का भी खासा बड़ा योगदान है। लेकिन इसका हल यह तो नहीं ही है कि लोगों से निजी गाड़ी रखने का उनका अधिकार ही छीन लिया जाए। इसीलिए मैं मानता हूं कि इसमें कुछ जिम्मेदारी हमारे जैसे लोगों की भी है, जो ऑटोमोबाइल उद्योग से जुड़े हैं। हमें भी आगे बढ़कर टिकाऊ परिवहन उपकरणों के विकास की मुहिम में हिस्सा लेना पड़ेगा। इसी वजह से, अपनी कंपनी में हम बायो-फ्यूल वाहनों को सड़कों पर लाने के साथ-साथ भारत के पहले डीजल-इलेक्ट्रिक हाइब्रिड वाहन को उतारने की कड़ी मशक्कत कर रहे हैं।
इन्हीं बातों के मद्देनजर एक और सर्वे को पढ़कर मैं सबसे यादा उत्साहित हुआ। यह एक ग्लोबल सर्वे था, जिसके नतीजे बताते थे कि ग्लोबल वार्मिग और पर्यायवरणीय बदलावों को लेकर बाकी विकासशील दुनिया के मुकाबले भारतीय सबसे यादा चिंतित हैं। शायद इसीलिए मुङाे लगता है कि ख्वाब देखने की मेरी यह प्रक्रिया आस का महज बुलबुला ही साबित नहीं होगी।
- आनंद महिंद्रा

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